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Saturday, 6 October 2012

विश्वहिंदी सम्मेलन बनाम वर्गसंघर्ष





विश्वहिंदी सम्मेलन को लेकर आ रही प्रतिक्रियाओं के मध्य हिन्दी की पुरानी पीढ़ी व युवा पीढ़ी को लेकर कई स्थानों पर चर्चाएँ चल रही हैं, लेख लिखे जा रहे हैं और विमर्श हो रहे हैं। एक बड़ा मुद्दा इन दिनों ऐसे  सामान्यीकरण का यह है कि (व कुछ लोग इसलिए नाराज हैं कि)  हिन्दी के सब दादा लोग वहाँ हर बार पहुँच जाते हैं, जबकि युवा पीढ़ी ही हिन्दी का भविष्य है, उसे ही वहाँ महत्व व भागीदारी और प्रतिनिधित्व करना चाहिए और पुरानी पीढ़ी को हट जाना चाहिए। कुल मिलाकर बहसों में अब यह विवाद युवा पीढ़ी बनाम पुरानी पीढ़ी का बन गया है।


हिन्दी में यह वर्ग संघर्ष नया नहीं है किन्तु ऐसी किसी घटना के पश्चात् यह और अधिक मुखर हो जाता है।  यों भी हिन्दी वालों पर पहले ही से पुरातनपंथी होने का ठप्पा लगा रहा है। ऐसे में इस तर्क को निरस्त  करने के लिए कुछ लोग हिन्दी को नई चाल में ढालने के नाम पर लाभ-पक्ष के दोहन में भी जुटे हैं। ऐसे नई चाल-ढाल में ढलने/ढालने के लाभों के मध्य हिन्दी के शुभ-अशुभ और लाभ-हानि के प्रश्न का सिरे से अनुपस्थित होना अत्यंत चिंताजनक है। हिन्दी आय का साधन बने, हिन्दी रोजगार दे, हिन्दी व्यवसाय लाए आदि-आदि के तंत्र में हिन्दी के हित से जुड़े प्रश्नों की नितांत अनुपस्थिति नितांत विडंबनापूर्ण है। इस प्रश्न की अनुपस्थिति स्वयं में कई नए प्रश्न खड़े करती है। प्रश्न ही नहीं संदेह भी।



रही युवाओं को अवसर देने के तर्क की बात तो उसके लिए भी तो पहले स्वयं को प्रमाणित करना होता है। कोई सबको अवसर बाँटने लगे भी, तो लाखों की भीड़ लग जाएगी, हर कोई किसी न किसी की सिफ़ारिश, चिट्ठी या अनुशंसा लेकर अपने को पंक्ति में आगे मानने की हेकड़ी दिखाने लगेगा। इसलिए अवसर देने के समाधान की भी अपनी समस्या है।


विश्वहिंदी सम्मेलन पर युद्ध करने और ताल ठोंकने वालों के लिए आवश्यक है कि वे इसका अर्थ समझें कि इसका अर्थ हिन्दी का एक बड़ा अंतर-राष्ट्रीय सम्मेलन नहीं है, अपितु विश्वहिन्दी अर्थात् हिन्दी के वैश्विक स्वरूप और स्थिति से संबन्धित एक सम्मेलन है। जिस दिन यह बात लोग आत्मसात कर लेंगे उस दिन सम्मेलन पर और हिन्दी पर बड़ा उपकार करेंगे, वरना इस सम्मेलन के लिए मचने वाली बंदरबाँट यों ही चलती रहेगी और जिन्हें प्रसाद नहीं मिलेगा वे वंचित रहने की पीड़ा के चलते हाय-तौबा मचाते रहेंगे। इन सब के बीच जो वास्तविक लोग हैं, उनकी यथावत् न पूछ होगी, न आवाज बचेगी और जाने किस दिन कौन सच्चा सिपाही थक-हार कर कूच कर जाएगा....पर तमाशा यों ही चलता रहेगा। यों राजनीति और हायधर्म, दौड़धर्म और जुगाड़धर्म आदि सारे धर्मों का अस्तित्व विदेशों में बसे हिन्दीभाषी हिन्दी वालों में भी भारत की बराबरी का ही है। इसलिए मैं हिन्दी को लेकर कोई बड़ा स्वप्न फिलहाल नहीं देखती। संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनने के बाद हमारे इन सब धर्मों को नाम का अंतरराष्ट्रीय स्वरूप ही मिलना बचा है, वस्तुतः ये वैश्विक तो पहले से हैं ही।


सम्मेलन को बंद किया जाना भी कोई समझदारीपूर्ण समाधान नहीं है। तब तो हिन्दी के लिए सरकार के नाममात्र के दायित्व की भी इतिश्री हो जाएगी। वस्तुतः चीजों को पारदर्शी बनाना, गुणवत्ता को तय करना, ठोस कार्यरूप देना आदि के लिए कड़ाई से कुछ करना होगा। अर्थात् सम्मेलन का विरोध नहीं, सम्मेलन की विधि और दोष का विरोध हो।


जहाँ तक हिन्दी की पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के नाम पर चलने वाले इस वर्गसंघर्षजन्य विवाद की बात है तो मुझे पीढ़ी के रूप में ऐसा वर्गीकरण यह कहने को बाध्य करता है कि वस्तुत: न पुरानी पीढ़ी ने कम अनर्थ किए हैं, न कम जोड़ तोड़ और लालसा रही है व न ही नई पीढ़ी उस से कुछ कम है, बल्कि पुरानी पीढ़ी से अधिक ही तिकड़मी और 'कैलकुलेटिव' है। नई पीढ़ी वे सारी तकनीकें जानती है (और बेखौफ अपनाती है ) कि कब क्या कर कर, कह कर, लिख कर, न लिख कर, हट कर, न हट कर, बोल कर, चुप रह कर, कंधे का सहारा लेकर या कंधा देकर, गिरा कर या चढ़ा कर.... आदि हर तरह की क्रिया के द्वारा किस तरह जोड़तोड़ की/से दौड़ में बेखौफ़ हर हथियार और हथकंडे से अपने को आगे रखना है। पुरानी पीढ़ी की कब वाह-वाह कह कर वे पुरानी पीढ़ी का कैसे व कब इस्तेमाल कर जाते हैं इसका पता ही इस्तेमाल हो जाने वाले को नहीं चलता।  इस्तेमाल के बाद में कब दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंकना है, यह भी युवा पीढ़ी बहुत निपुणता से जानती व करती है। साहित्य की पुरानी पीढ़ी भी कोई दूध की धुली नहीं थी। उन्होंने भी विरासत में यही सब जरा कम अनुपात में नई पीढ़ी को सौंपा है। बस दोनों की लिप्साओं के प्रकार में एक-दो चीजों का अंतर है। 


इसलिए मेरी नजर में पूरे कुएँ में ही भाँग रही है। हाँ यदि कभी दो दुष्टों की स्पर्धा की बात है तो इतना जरूर है कि पुरानी पीढ़ी के यह सब करते रहने के बावजूद वे अनुपात में कम से कम अपने विषय के ज्ञाता, बहुपठ, विशेषज्ञ और अधिक ज्ञान-सम्पन्न रहे हैं, बनिस्बत इसके कि नई पीढ़ी पुरानी हर पीढ़ी की तुलना में बहुत अधिक खोखली व वितंडावादी है।


इसलिए मेरा समर्थन किसी को उसकी आयु के आधार पर श्रेष्ठ या कमतर मान लेने के पक्ष में नहीं है, अपितु उसके व्यक्तिगत आचार विचार, ज्ञान, समझ, विवेक, औदात्य आदि कई कसौटियों के आधार पर उसके रचनाकर्म व व्यक्तित्व के सम्पूर्ण आकलन के साथ साथ उसके सामाजिक व रचनात्मक योगदान के पक्ष में है ।


क्या कभी इन कसौटियों के आधार पर प्रतिभागिता तय करने का कोई नियामक हम बना पाएँगे ? जिस दिन उसे बना पाए  और क्रियान्वित कर पाए, उस दिन से पहली बार हम हिन्दी के हित को लेकर वास्तव में चिंतित होने की बात कह सकते हैं, अन्यथा हिन्दी की सेवा और हिन्दी के हित के नाम पर हिन्दी के दोहन की नई तकनीकों और तर्कों को हम बड़ी कुशलता से चलाने और मनवाने का वाग्जाल फेंक रहे होते हैं और जाल फेंकने व बटोरने के पीछे निरंतर हिन्दी का ही मांसाहार हमारा शौक बन चुका होता है। इस कथित वर्ग-संघर्ष के पीछे भी एक तरह के शातिर समझौते का अनुसरण कर रहे होते हैं। 

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