डा. धर्मवीर का
साहित्य क्यों पढ़ें?/
कैलाश दहिया
डा. धर्मवीर का साहित्य क्यों पढ़ें? यह कोई छोटा सवाल
नहीं, बल्कि हिन्दी
साहित्य का केन्द्रीय प्रश्न है। हिन्दी साहित्य या किसी भी भाषा के साहित्य का
मूलभूत प्रश्न क्या है?
या,
साहित्य क्यों लिखा और पढ़ा
जाता है? ऐसे ही सवालों के
बीच डा. धर्मवीर के साहित्य की परख की जा सकती है। सर्वप्रथम तो हम जान लें कि ‘धर्मवीर साहित्य या
धर्मवीर दृष्टि’ क्या है। धर्मवीर
दृष्टि किन सवालों और समाधानों के साथ आई है?
जैसा
कि हम सभी जानते हैं, यह देश पिछले ढाई हजार सालों से गुलाम रहा है। इस
गुलामी की वजह द्विज दृष्टि या द्विज साहित्य है, जिस में जार को बचाने के उपाय किए गए
हैं। यवन, शक, हूण, कुषाण से ले कर सय्यद, शेख, मुगल, पठान और पिछली शताब्दी तक भी हम अंग्रेजों के
गुलाम रहे हैं। कोई भी कौम गुलाम कब बनती है? जब किसी कौम में ‘मोरेलिटी’ नाम की चीज नहीं होती, तब उसकी गुलामी निश्चित हो जाती है। ब्राह्मणी
(द्विज) व्यवस्था में, ब्राह्मण ने अपने जारकर्म को
सुचारु रूप से चलाए रखने के लिए विदेशी शासकों की सत्ता स्वीकार की है। उसने विदेशियों
के राजतिलक किए हैं। दलित तो भारतीय समाज-व्यवस्था में परिधि से बाहर खड़ा है। उसने
इनकी गुलामी
को देखा है। अपनी आजीवक परम्परा में दलित तो हमेशा से मोरलिस्ट ही रहा है। जबकि इनकासाहित्य भी‘जारकर्म का पक्षधर साहित्य’ है।
जब द्विजों की समाज व्यवस्था में ही मोरेलिटी नहीं है, तो साहित्य में मोरल कहाँ से आएगा? इनके साहित्यकार होने की निशानी ही जार होने में है। जार का साहित्य देश को गुलाम ही बनवाएगा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी जयशंकर प्रसाद ‘कामायनी’ लिख रहे थे। प्रेमचंद दलितों के विरुद्ध कलम चला रहे थे तथा बुधिया को जारकर्म के लिए उकसा रहे थे। बाकी किस की बात की जाए? ऐसे में डा. धर्मवीर का साहित्य ‘मशाल’ की तरह हमारे सामने उपस्थित होता है। डा. साहब जारों की धरपकड़ ही नहीं करते, बल्कि वे जारकर्म की पूरी व्यवस्था को नाभि से पकड़ लेते हैं। वे जारसत्ता को तार-तार कर देते हैं। डा. साहब का साहित्य मोरेलिटी के साथ आता है। इससे व्यक्ति की गरिमा को चार-चाँद लग जाते हैं। डा. साहब के साहित्य से जार भयभीत हो जाता है। उधर, दलित गौरव और आत्मस्वाभिमान की भावना से भर जाते हैं।
जब द्विजों की समाज व्यवस्था में ही मोरेलिटी नहीं है, तो साहित्य में मोरल कहाँ से आएगा? इनके साहित्यकार होने की निशानी ही जार होने में है। जार का साहित्य देश को गुलाम ही बनवाएगा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी जयशंकर प्रसाद ‘कामायनी’ लिख रहे थे। प्रेमचंद दलितों के विरुद्ध कलम चला रहे थे तथा बुधिया को जारकर्म के लिए उकसा रहे थे। बाकी किस की बात की जाए? ऐसे में डा. धर्मवीर का साहित्य ‘मशाल’ की तरह हमारे सामने उपस्थित होता है। डा. साहब जारों की धरपकड़ ही नहीं करते, बल्कि वे जारकर्म की पूरी व्यवस्था को नाभि से पकड़ लेते हैं। वे जारसत्ता को तार-तार कर देते हैं। डा. साहब का साहित्य मोरेलिटी के साथ आता है। इससे व्यक्ति की गरिमा को चार-चाँद लग जाते हैं। डा. साहब के साहित्य से जार भयभीत हो जाता है। उधर, दलित गौरव और आत्मस्वाभिमान की भावना से भर जाते हैं।
डा. धर्मवीर का साहित्य दलितों की गुलामी दूर करते हुए चलता है।
इतना ही नहीं, वे ताकत का अहसास भी
करते चलते हैं। डा. साहब की किताबों की एक-एक पंक्ति-एक-एक शब्द दलित के
पक्ष में लिखा गया है। हाँ, ये
शब्द उन दलितों को समझ नहीं आते, जो
द्विजों की
जार संस्कृति में रच-बस गए हैं, जिन्हें दलितों की गुलामी से
कोई मतलब नहीं, जो
व्यक्तिगत स्वार्थ में डूबे दलितों के गले पर छुरी चला रहे हैं। ऐसे लोगों को डा. साहब ने ‘मुनाफिक’ का नाम दिया है। इन मुनाफिकों ने ही दलितों को गुलाम बनवा
रखा है। लेकिन इस बार डा. साहब ने इस गुलामी को हमेशा के लिए खत्म कर दिया है। डा. साहब का साहित्य इसकी
मिसाल है। दलितों को गुलामी की तरफ धकेलने वाली ‘कफन’ और ‘दूध का दाम’ जैसी कहानियाँ और ‘रंगभूमि’ का मर्सिया पाठ ‘प्रेमचंद: सामंत का मुंशी’ और ‘प्रेमचंद की नीली आँखें’ के रूप में लिखा जा चुका है।
उधर,
डा. धर्मवीर
की आत्मकथा यानी उनके घर की कथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’
मोरेलिटी की ताकत के साथ आई है। आज तक मोरेलिटी
को ले कर ऐसा लेखन हुआ ही नहीं। हम भारतवर्ष की ही बात क्यों करें, विश्व साहित्य में भी ऐसे महाग्रंथ की रचना
नहीं हुई। पुरानी
साहित्यिक परम्परा में यह ‘मोरेलिटी
का महाकाव्य’ है। यह घर-कथा द्विजों की
जारकर्म से भरी ‘रामायण’
और ‘महाभारत’ को हटा कर आई है। ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ हिन्दी साहित्य की केन्द्रीय कृति बनने की ओर
अग्रसर है। इसीलिए, द्विजों के हाथ-पैर फूल गए
हैं। ये मोरेलिटी के साहित्य का क,ख,ग ही नहीं जानते, अब ये क्या पढ़ेंगे और क्या पढ़ाएंगे?
और ज्यादा न कह कर यह भी बताया जाए कि
डा. धर्मवीर के साहित्य से ही भारतीय साहित्य में मोरेलिटी का उद्भव होता है।
दलितों की गुलामी
तो खत्म होती ही है, साथ
ही अगला लाभ
यह है कि देश को फिर से गुलाम नहीं बनाया जा सकता। और हाँ, जार साहित्य का विलुप्त होना भी डा.
धर्मवीर के साहित्य से तय हो गया है।
उधर अनिता भारती बार-बार लिखती हैं कि ‘धर्मवीर की पुस्तक ‘प्रेमचंद : सामंत का मुंशी’ के लोकार्पण का दलित महिलाओं ने सशक्त
विरोध किया।
दलित महिलाओं ने धर्मवीर के दलित स्त्री विरोधी लेखन के खिलाफ जमकर नारे लगाए।’ (देखें, धर्मवीर के लेखन का बहिष्कार क्यों? अनिता भारती, dalitmat.com) सर्वप्रथम तो, भारती को यह बताना चाहिए कि ये दलित महिलाएं
कौन हैं और क्यों
डा. साहब के विरोध में उतरी हुई हैं? एक तो वे खुद ही हैं, जो ठाकुर से विवाह कर के दलित नहीं रह गई हैं। दूसरी
हैं विमल थोराट और तीसरी उनकी अपनी बहन रजनी तिलक। भारती समेत ये तीनों महिलाएं
जारकर्म की समर्थक
हैं, जो डा. साहब द्वारा
प्रेमचंद की ‘बुधिया’
के जारकर्म को पकड़े जाने पर बौखलाई हुई
हैं। डा. साहब
दलित स्त्रियों को जारकर्म से दूर रहने की सलाह दे रहे हैं, लेकिन ये हैं कि सुधरने का नाम ही नहीं
ले रहीं। इन्होंने उस कार्यक्रम में नारे ही नहीं बल्कि जूते-चप्पल भी चलाए थे, जिसके बारे में प्रसिद्ध लेखक सूरजपाल
चैहान जी ने लिखा है-‘‘पूर्वाग्रहों
से ग्रसित कुछ दलित महिलाओं का इस कार्यक्रम (‘प्रेमचंद: सामंत का मुंशी’ का लोकार्पण, 12 सितम्बर 2005) में आना, बिना बात सुने या संवाद किए जूते-चप्पल चलाना, कौन सी बौद्धिकता है? ऐसे कृत्यों से साफ पता चलता है कि ये विचारों से
कितनी द्ररिद्र हैं। ये केवल ऐसे ही काम कर सकती हैं।’’ उन्होंने आगे लिखा है-‘‘और आज, इस कार्यक्रम में …. डा. विमल थोराट हाथ में चप्पल उठाए पांच मिनट से भी
अधिक देर तक उसे लहराती रहीं और एक साधारण कार्यकर्ता या नेता की तरह कैमरे के सामने अपने
फोटो खिंचवाती रहीं। इसी दौरान मेरे देखने में आया था कि इस झुंड में आए कुछ गैर-दलित
युवक उन महिलाओं को भड़काने में लगे हुए थे तो कुछ पैरों की ठोकरों से कुर्सियों को
इधर से उधर करने
में लगे हुए थे। उन में से कई लोगों के मुँह से शराब की बू का तेज भभका भी आ रहा था। जूते-चप्पल चलवाने के
बाद मैंने उस गैर-दलित युवक को कहते सुना-‘‘चलो-चलो बस्स अब बहुत हो गया।’’ ऐसा कहते हुए वह सभी दलित महिलाओं और झुंड को हाल से
बाहर ले गया
था। उस के व्यवहार से साफ पता चल रहा था कि इस तरह का उपद्रव करवाना एक ‘प्री-प्लांड’ था।’’ (देखें, घर का जोगी जोगड़ा, सूरजपाल चैहान, बहुरि नहिं आवना, जुलाई-सितम्बर 2010, जे-5, यमुना अपार्टमेंट, होली चैक, देवली, नई दिल्ली-110062, पृ. 38) सूरजपाल चैहान जी की इस लिखत से साफ पता
चलता है कि इस जूता-चप्पल कांड का केन्द्र कहीं और था। कार्यक्रम स्थल
पर उन का नेतृत्व
वह गैर-दलित युवक कर रहा था, जिसके
इशारे पर ये सब कांड को अंजाम दे कर हाल से चले गए।
इधर,
अनिता भारती ने जूते-चप्पल चलाने की बात तो छुपा ही ली,
नारे लगाने की बात बड़ी बहादुरी से लिख दी। वे
यह भी लिख देतीं तो अच्छा था कि उन्होंने और बाकी कथित स्त्रिायों
ने किस के इशारे पर इस कु-कृत्य को अंजाम दिया। ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव ने तो पछतावा
करते हुए लिख
ही दिया है,-‘‘एक
गोष्ठी में दलित लेखिकाओं ने उन पर (डा. धर्मवीर) चप्पलें फेंकी, गालियां दीं। मैं तब भी इसका विरोधी था।’’ (देखें, वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति (संपादकीय), राजेन्द्र यादव, हंस, सितंबर 2010, पृ. 6) उधर, सुना है कि दलित साहित्य में उपेक्षित एक
पत्रिका के संपादक के घर यह सारा षडयंत्रा बुना गया था। पाठक इस बात से भी अंदाजा
लगा सकते हैं कि जेएनयू जैसे विश्विद्यालय में इस कांड के बाद मिठाइयाँ बांटी गई
थीं। इस कांड में सम्मिलित आज प्रेम की अकथ कहानी लिख रहे हैं और उनके
पक्षधर मंचों
पर उनके गीत गा रहे हैं। कुल मिला कर हिन्दी द्विज साहित्य जूते-चप्पल में सिमट
गया है। उधर, दलित
साहित्य इस
से उभर कर सोने की तरह चमक उठा है।
उधर प्रतिष्ठित पंजाबी कवि, ‘छांग्या रुक्ख’ के आत्मकथाकार और ‘गदरी बाबा मंगू राम’ के लेखक बलबीर माधोपुरी जी ने एक बातचीत में (शीघ्र प्रकाशय)
इस प्रकरण की कठोर-शब्दों में निंदा की है। वे कहते हैं, अगर उन्हें जरा सा भी अहसास होता तो वे इन कु-कृत्य करने
वालों को कार्यक्रम स्थल पर फटकने भी नहीं देते। माधोपुरी जी साफ कहते हैं कि इन औरतों ने दलित आंदोलन को
जबरदस्त नुकसान पहुंचाया है। माधोपुरी जी ने बताया, इसका एक फायदा जरूर हुआ कि ये लोग पहचान में आ गए अन्यथा ये
और भी अधिक नुकसान कर सकते थे।
इधर बताया जाए, जो दलित लड़के-लड़कियाँ द्विजों से विवाह कर बैठते हैं, वे हमेशा के लिए दलितों के विरोध को अभिशप्त हो जाते हैं। बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर ने अन्तरजातीय विवाह के नाम पर एक मानवीय समाज की कल्पना की थी, लेकिन वे या तो द्विज जार परम्परा को पहचान नहीं पाए या उन्हें उम्मीद थी कि दलितों के सम्पर्क से द्विज सुधर जायेंगे। लेकिन जो ढाई हजार साल से नहीं सुधरे वे भला अब भी क्यों सुधरेंगे? बाबा साहेब का प्रयोग असफल हो गया है। वैसे बाबा साहेब के ‘हिन्दू कोड’ पर करपात्री जैसे स्वामियों ने कह ही दिया था कि अम्बेडकर कौन होते हैं उनकी संस्कृति (जार परम्परा) में दखल देने वाले। करपात्री सही सिद्ध हुए हैं। प्रेम या अन्तरजातीय विवाह के नाम पर हमारे दलित लड़के-लड़कियाँ जार परम्परा के शिकार हो गए हैं। दलितों को जो आर्थिक नुकसान हुआ है उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। द्विज परम्परा की लड़की ने दलित घरों में आ कर क्या गुल खिलाए हैं, इसे भुगतभोगी ही जानते हैं। ऐसी सब बातों को डा. धर्मवीर अपनी किताब ‘चमार की बेटी रूपा’ में विस्तृत रूप से बता चुके हैं। मेरा दलितों से अनुरोध है कि वे इस किताब को जरूर पढ़ें।
इधर बताया जाए, जो दलित लड़के-लड़कियाँ द्विजों से विवाह कर बैठते हैं, वे हमेशा के लिए दलितों के विरोध को अभिशप्त हो जाते हैं। बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर ने अन्तरजातीय विवाह के नाम पर एक मानवीय समाज की कल्पना की थी, लेकिन वे या तो द्विज जार परम्परा को पहचान नहीं पाए या उन्हें उम्मीद थी कि दलितों के सम्पर्क से द्विज सुधर जायेंगे। लेकिन जो ढाई हजार साल से नहीं सुधरे वे भला अब भी क्यों सुधरेंगे? बाबा साहेब का प्रयोग असफल हो गया है। वैसे बाबा साहेब के ‘हिन्दू कोड’ पर करपात्री जैसे स्वामियों ने कह ही दिया था कि अम्बेडकर कौन होते हैं उनकी संस्कृति (जार परम्परा) में दखल देने वाले। करपात्री सही सिद्ध हुए हैं। प्रेम या अन्तरजातीय विवाह के नाम पर हमारे दलित लड़के-लड़कियाँ जार परम्परा के शिकार हो गए हैं। दलितों को जो आर्थिक नुकसान हुआ है उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। द्विज परम्परा की लड़की ने दलित घरों में आ कर क्या गुल खिलाए हैं, इसे भुगतभोगी ही जानते हैं। ऐसी सब बातों को डा. धर्मवीर अपनी किताब ‘चमार की बेटी रूपा’ में विस्तृत रूप से बता चुके हैं। मेरा दलितों से अनुरोध है कि वे इस किताब को जरूर पढ़ें।
फिर,
जो दलित स्त्रियां प्रेम या अंतरजातीय विवाह के
नाम पर
द्विजों से विवाह कर बैठती हैं, वे
‘द्विज जार परम्परा’ में कानूनतः ‘ना तलाक’ की व्यवस्था के चलते अपराध की शिकार ही बनती हैं।
द्विजों ने कसम उठा रखी है कि वे कभी सुधरेंगे नहीं। विवाहित होने के बावजूद
वे पराई औरतों से सम्बंध बनाते हैं। ऐसे में उनकी स्त्रिायां, वे चाहें दलित भी क्यूं ना हों, कुछ नहीं कर पातीं। उन्हें मन मार कर पति से
सम्बंध रखना ही होता है। ऐसा सम्बंध वेश्यावृत्ति, देवदासी और बलात्कार की केटेगिरी में ही
आता है। इसी को बाह्य मैथुन कहते हैं। तलाक हो नहीं सकता-पति (द्विज) जारकर्मी है, तब स्त्री सैक्स से इंकार करती है तो वह जबरदस्ती
करता है। यह सैक्स सम्बन्ध बलात्कार की श्रेणी में आता है, और उस जारकर्मी पति के सम्बंधों के बाद
भी कोई पत्नी उस जार से सम्बंध बनाती है, तो निस्संदेह वह वेश्यावृत्ति और देवदासी
की केटेगिरी में
ही आता है। इसलिए महान आजीवक चिंतक डा. धर्मवीर का कहना शत-प्रतिशत सही है।
हमारी आजीवक स्त्रियां भी ‘आजीवक’
तथा ‘द्विज विवाह’ व्यवस्था के अंतर को समझ लें। वे कथित
प्रेम या अंतरजातीय विवाह के चक्कर में माता-पिता की मेहनत को मट्टी में ना मिलने दें। यहां
बताया जाए कि अपने कानून की परम्परा में द्विज स्त्री तो जारकर्म को
अभिशप्त है
ही, वह दलित स्त्री भी
जारकर्म के घेरे में आ जाती है जो द्विज से विवाह कर बैठती है।
अपने लेख में,
अनिता भारती ने दबी-कुचली दलित/गैर दलित स्त्री की अस्मिता की बात की
है। अब गैर दलित स्त्री की बात वे ही जानें कि क्या कहना चाह रही हैं। जैसे दलित
जीवन में गैर दलितों को झांकने की छूट नहीं, वैसे ही गैर दलितों की समस्याओं से भी ‘दलित-विमर्श यानी ‘धर्मवीर दृष्टि’ को कोई मतलब नहीं। अब बात करें दबी-कुचली दलित
स्त्री की। इस तथाकथित दबी-कुचली दलित स्त्री को किस ने कुचला
और दबाया है? बुधिया
को ‘घीसू-माधव’ ने ना तो दबाया था और ना कुचला था। बुधिया
के नवीनतम संस्करण भंवरी देवी को किस ने दबाया-कुचला है? ऐसी बुधियाओं का क्या करें? दलित निस्सन्देह ऐसी बुधिया को तलाक ही
देगा। अब ये बुधियाएं जाएं ठाकुर के दरवाजे पर। हाँ, भँवरी बाई और फूलन देवी के बलात्कारियों के लिए कठोर
से कठोर सजा
की मांग दलितों की तरफ से की ही जा रही है। हमारी वे महिलाएं जो मोरेलिटी पर खड़ी
हैं, जिन्होंने घरों को
सुचारु ढंग से संभाला हुआ है और जो आत्मनिर्भर हो परिवार को आगे बढ़ा रही हैं, जो पति के साथ कंधे से कंधा लगा कर खड़ी हैं, इन्हीं के बल पर दलित-विमर्श आगे बढ़ रहा
है। तो, कुल मिला कर दबी-कुचली
दलित महिला का मामला ‘जारकर्म और बलात्कार’ के बीच का है, जिसका समाधान जारकर्म पर तलाक और बलात्कार पर दंड का
है। अनिता भारती किसे भरमाने की कोशिश कर रही हैं? और हाँ, द्विजों के घरों में जारकर्म, हत्या और सती प्रथा की परम्परा है। दलित ऐसी
प्रथाओं से दूर खड़े हैं। दलित पुरुष अपनी पत्नी से प्रेम करता है, अगर कोई जारकर्म में गिर जाती है तो उसे तलाक दे
कर उससे
अलग हट जाता है।
अनिता भारती को इस बात पर ऐतराज
है कि डा. धर्मवीर
मौलिक चिन्तक क्यों हैं। अब इन की इस समस्या पर क्या कहा जाए? इन जैसी स्त्रिायों और इन जैसे ही इनके
समर्थकों ने मक्खलि गोसाल, रैदास,
कबीर के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया था।
इसीलिए दलित
आज तक गुलाम बने हुए हैं। ये अरस्तू को तो दार्शनिक मानने को तैयार हैं, लेकिन घर के अरस्तू को अरस्तू मानने में
इन्हें परेशानी हो रही है। क्यों, वैसे बताया जाए कि डा.
धर्मवीर इतने बड़े चिन्तक हैं कि आज हिन्दुस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया में उनके समकक्ष कोई विचारक
टिक नहीं सकता। वे अरस्तू ही नहीं बल्कि अरस्तू के गुरु सुकरात से भी बड़े चिन्तक
हैं। वे आज के कबीर हैं, जिन्हें
अपनी ही
कौम के जारकर्म समर्थकों का विरोध सहना पड़ रहा है।
अनिता भारती को यह भी बताया जाए
कि डा. धर्मवीर
बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर के कामों को ही आगे बढ़ा रहे हैं। इस नाते वे डा.
अम्बेडकर से बड़े
चिन्तक हैं। वैसे भी बाबा साहेब अर्थशास्त्रा के प्रकांड विद्वान थे, जबकि डा. साहब दर्शन शास्त्र को अंगुलियों पर
नचाते हैं। वे डा. अम्बेडकर से आगे के चिन्तक हैं। इससे भारती को या किसी को क्या
दिक्कत हो रही है? यहां,
यह भी बताया जाए कि जो बौद्ध धर्म अपना चुके हैं उन
दलितों से
हमारा किसी तरह का विवाद और संवाद नहीं। हम केवल दलितों से संवाद में हैं। जिन
दलितों ने बौद्ध धर्म अपना लिया है, वे अपने बौद्ध धर्म में रहें और उसका पालन करें।
यह बात शत-प्रतिशत
सही है कि दलितों को बुद्ध की जरूरत नहीं। बुद्ध के लौटने की प्रार्थना करना
सही नहीं है। वे अपने घर नहीं लौट थे तो देश में क्या लौटेंगे? यह सही और बिलकुल सही है कि बुद्ध को लौटना है तो पहले अपने घर लौटें।
घरबारी बनें। पत्नी से प्यार करें, बच्चों
को स्कूल
भेजें और कबीर की तरह भगवान के गुण गाएं।
अनिता भारती धमकी भरे अंदाज में
लिखती हैं कि अगर
और कोई भी धर्मवीर बनने की कोशिश करेगा, तो उसका यही हश्र किया जाएगा। यानी वे कह
रही हैं कि
दलितों में जो भी सोचना-समझना शुरू करेगा, उस पर ये जूते-चप्पल चलाएंगीµकैसी सोच है इनकी? यह सोच कर ही हैरानी होती है कि कोई दलित
स्त्री अपने
चिन्तक से जूते-चप्पल की भाषा में बात करती है। वैसे, अनिता भारती को बताया जा रहा है कि हर दलित बालक
धर्मवीर ही है और यह गर्व की बात है। वह कौम आत्म-स्वाभिमान और गौरव से भर जाती है,
जिसमें डा. धर्मवीर जैसा महान चिन्तक जन्म लेता
है। इस
नाते चमार (दलित) कौम जितनी भाग्यशाली कौम आज कोई नहीं है। वे कौमें अभिशप्त
होती हैं, जिनमें डा. धर्मवीर
जैसी हस्ती पैदा नहीं होती। और उन स्त्रिायों को क्या कहा जाए, जो डा. साहब पर जूते-चप्पल चलाती हैं? वे इतिहास की अभिशप्त पात्रा बन कर रह
गई हैं। वैसे, अनिता
भारती यह जान लें कि वे ‘विरोध किसी को आक्रामक ही
क्यों ना लगे’ जैसा जो जुमला लिख रही हैं,
वैसा विरोध का अधिकार सामने वाले को भी
हासिल है। यह तो डा. धर्मवीर की उदारता और महानता है, अन्यथा ‘चप्पल-प्रकरण’ जैसे कु-कृत्य पर कानूनन जेल का रास्ता तय
है।
आखिर में बताया
जाए, डा. धर्मवीर का साहित्य इसलिए
पढ़ें कि देश पिछले ढाई हजार सालों से गुलाम रहा है। डा. साहब ने इस
गुलामी की मूल
वजह ‘जार सत्ता’ को ढूंढ निकाला है। जारों ने ही हमारे देश को गुलाम बनवा के
गेर रखा था। वे अपनी ‘जारी’
के लिए देश को गुलाम बनवाने तक नहीं हिचके। पुरोहित के रूप में
ब्राह्मण ने अपनी ‘द्विज
जार परम्परा’ से देश की गुलामी को
व्यवस्थित रूप से चला रखा था। द्विज युद्ध के मैदान से पीठ दिखा कर
भागे हैं, लेकिन ये चारण गीतों के रूप
में ‘पृथ्वीराज रासो’
जैसे ग्रंथ लिखवाते हैं। द्विज अगर इतने
ही बहादुर होते तो देश गुलाम हो ही नहीं सकता था। असल में, इनका जारकर्म चलता रहे, शासक कोई भी हो, इन्हें फर्क नहीं पड़ता। मंदिरों-आश्रमों
के व्यभिचार किसी से छुपे नहीं हैं। इनकी जारसत्ता ना पकड़ी जाए, इसलिए इन्होंने दलितों यानी आजीवकों की शिक्षा
पर ही प्रतिबंध लगवा रखा था। डा. धर्मवीर के साहित्य से द्विजों की ‘जारसत्ता की व्यवस्था’ की सारी हकीकतें सामने आ गई हैं। इसलिए डा. धर्मवीर का
साहित्य पढ़ा जाना बेहद जरूरी हो गया है।
वैसे तो,
डा. धर्मवीर की एक-एक
किताब साहित्य की धरोहर है लेकिन, ‘मेरी
पत्नी और भेड़िया’ हिन्दी साहित्य को अनुपम देन
है। डा. साहब की इस घर-कथा में जार और जारिणी का चेहरा उघड़ कर सामने आ गया है। यह
किताब पारम्परिक द्विज साहित्य की छाती में अंतिम कील है। जार साहित्य का विलुप्त
होना तय हो गया है। अनिता भारती और ऐसी ही स्त्रियाँ पता नहीं क्यों ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ से डर गई हैं? डा. धर्मवीर ने जारकर्म पर अपनी पत्नी
से तलाक क्या मांगा, इन
द्विजों और
कथित स्त्री-समर्थकों की हाय-हाय निकलने लगी। फिर, भारती जैसी स्त्रिायाँ ‘स्त्री’ के नाम का झंडा ले कर मैदान में उतर आईं।
ये जान लें, आजीवक परम्परा में बुधियाओं
के लिए कोई जगह नहीं है। उन्हें जमींदार के दरवाजे पर ही अपनी गुहार लगानी पड़ेगी। डा. साहब ने ‘घीसू-माधव’ को प्रेमचंद के शिकंजे से मुक्त करा लिया है।
लेखक युवा कवि, आलोचक और कला समीक्षक हैं
आलेख स्त्रोत : http://mediamorcha.com/
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