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Friday, 29 March 2013

कविराज...उठाओ कलम....!!



कविराज...उठाओ कलम....!!



Dear Friend,
A very big thank you to all of you who are going to participate in the captioned competition. please see below the details and broad rules of the competition (more details will follow in the due course).
Rules:
  1. The Competition is open to anyone aged 16 and to members of Syahee.com only. There is no upper age limit for entry.
  2. The deadline for entries is 5pm (India time) on 14 th April 2013. Entries received after this deadline will not be considered.
  3. All work must be typed or word processed, clearly legible and written in Hindi or Gujarati. Entrants should not include illustrations or art work.
  4. All the entries must be emailed to syaheecom@gmail.com, in subject line you must include your Syahee website profile name and language in which the poetry is written.
  5. Amendments cannot be made to entries after they have been submitted; poems cannot be amended, corrected or substituted.
  6. The Judges decision will be the final decision.
The competition is still open so please do invite your friends and family to participate.
Best of luck!
Syahee Team
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Thursday, 21 March 2013

मराठी समंदर अब भिगोयेगा हिंदी में......



मराठी भाषा की एक विचारोत्तेजक कृति का हिन्दी अनुवाद



जो रचना किसी सामाजिक उद्देश्य को चरितार्थ नहीं करती, वह भी जीवन के किसी प्रश्न से जूझ रही हो सकती है, यह अलग बात है कि उसकी पहचान अलग दृष्टि की अपेक्षा करे।
जो लेखक सृजन की इस अंत:प्रकृति के प्रति आश्वस्त नहीं होते, वे अपनी रचना में सजगत: प्रश्न उठाना और उसका उत्तर तलाशना आवश्यक समझते हैं। मराठी कथाकार मिलिंद बोकील की पद्मजा घोरपड़े द्वारा हिंदी में अनूदित कथाकृति समंदर इसी प्रकृति की रचना है।
सोचने को उकसाती कृति

इसमें लेखक ने दिखाया है कि पुरुष आज भी अपनी सामंती मनोवृत्ति से मुक्त नहीं हुआ है। विवाह करने के साथ ही वह औरत को अपनी संपत्ति समझने लगता है। उसकी पत्नी को कोई छू भी ले, यह उसे गवारा नहीं है। भास्कर एक सज्जन और विवेकी पुरुष है, लेकिन जब वह अपनी पत्नी को राजोपाध्ये का हाथ अपने हाथ में लेते देख लेता है, तो संशय का कीड़ा उसके मन में रेंगने लगता है। काल-संदर्भ को देखें तो इस वस्तुभित्ति को कमजोर ही कहा जाएगा। स्त्री-पुरुष का इतना-सा संपर्क आज के युग में किसी बड़े उद्वेलन का विश्वसनीय आधार नहीं कहा जा सकता, हालांकि लेखक ने भास्कर के भावों के आलोड़न-विलोड़न को समंदर के प्रतीक के सहारे व्यक्त करने का अच्छा प्रयत्न किया है।
रचना दो स्तरों पर चलती है। एक ओर जल में ज्वार-भाटा उठाता विशाल समंदर लहराता है, जिसके लिए भास्कर में अदम्य आकर्षण है। जब भी वह अवसर पाता है, समुद्र के किनारे या सामने पहाड़ी पर चला जाता है। दूसरी ओर, भावों का भंवर है जो मन को मथता है और उसे कहीं भी चैन नहीं लेने देता। पहले तो वह दृश्य ही उसे बेचैन करता है, जिसमें उसने पत्नी को दूसरे पुरुष का हाथ अपने हाथ में लेते देखा है; बाद में पत्नी का पश्चाताप उसे बुरी तरह उद्वेलित कर देता है। एक बार तो वह उसे घर से निकाल बाहर करने को भी तैयार हो जाता है। लेकिन लेखक ने रचना को वैचारिक धरातल प्रदान करके उसे निरी भावुकता के प्रवाह में बहने से बचा लिया है।
अपनी स्वीकारोक्ति के समय नंदिनी भी दांपत्य संबंधों के सदा के लिए बिखर जाने के प्रति कम आशंकित नहीं है। यह अलग बात है कि उसकी आशंका ही उसके चरित्र को ज्यादा जीवंत बनाती है। उसे कोरी तार्किक और यांत्रिक नहीं रहने देकर प्रभावी चरित्र बनाती है; लेकिन यह सुसंस्कृत और संयत स्त्री गहरे ठहराव से काम लेती है। लेखक का रचना-कौशल इस ठहराव के रचनात्मक रूपांतरण में ज्यादा फलित हुआ है। पति का विश्वास जीतने के लिए वह अपना स्खलन उसके समक्ष ईमानदारी से स्वीकार करती है, उससे कुछ भी नहीं छिपाती। मगर घटित प्रसंग की एक-एक परत किसी जीर्ण पुस्तक के बेहद नाजुक वरक की तरह संभाल कर खोलती है और साथ-साथ सैद्धांतिकता का सहारा लेकर अपना मंतव्य व्यक्त करती है; सीधे-सीधे अपनी पैरवी करके पति को भड़कने का अवसर नहीं देती। अपनी सुविचारित रणनीति से वह पति को अपने विचारों का कायल करती चलती है।
वह प्रश्न उठाती है कि क्या औरत का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है? क्या विवाह के साथ ही उसे अपना अस्तित्व विसर्जित हुआ मान लेना चाहिए? वह उसे अहसास करवाती है कि औरत भी एक स्वतंत्र अस्तित्व है; उसका अपना व्यक्तित्व होता है और विवाह हो जाने भर से उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व का लोप नहीं हो जाता, न पति उसका मालिक हो जाता है। पति के नहीं रहने पर भी जब पत्नी का रहना संभव है, तब पति के रहते उसका स्वतंत्र अस्तित्व क्योंकर संभव नहीं है? उसका शरीर अपना है और उसमें व्याप्त मन तो नितांत उसका है ही।
भास्कर सोचता है कि जब उसके बिना भी उसके घर की वस्तुओं का अस्तित्व संभव है, तब फिर नंदिनी का ही स्वतंत्र अस्तित्व क्योंकर संभव नहीं है? लेकिन इससे जुड़ा हुआ एक और प्रश्न, पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति सत्यनिष्ठ रहने, प्रतिबद्ध रहने का प्रश्न- उसे ज्यादा परेशान करता है। अस्तित्व की तार्किकता सतही है; ज्यादा तोष उसे नहीं देती, पाठक को भी नहीं, लेकिन प्रतिबद्धता का सवाल उसे ज्यादा कोंचता है। क्या राजोपाध्ये के साथ सहवास करके नंदिनी ने भास्कर के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भंग नहीं की है? लेखक ने इसका समाधान यह कह कर देना चाहा है कि मूलत: अस्तित्व का मुद्दा प्रतिबद्धता का अंश नहीं है।
बात सही है, लेकिन प्रस्तुत प्रसंग में विचारणीय मुद्दा अस्तित्व से ज्यादा प्रतिबद्धता का है। दरअसल, यौन-प्रतिबद्धता को भास्कर उद्वेलित इसी से होता है। औरत के अस्तित्व की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर लिए जाने से प्रतिबद्धता की समस्या समाप्त नहीं हो जाती। आवश्यकता इसे सुलझाने की थी, लेकिन लेखक इस प्रश्न से सीधी मुठभेड़ नहीं करता।
अवश्य एक जगह भास्कर नंदिनी से प्रति-प्रश्न करता है कि मैं ऐसा कुछ करता तो तुम क्या करती? सोच-विचार के बाद नंदिनी उत्तर देती है कि विशुद्ध हेतु से दोस्ती हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।लेकिन इस विशुद्ध का अर्थ और दायरा दोनों ही यहां स्पष्ट नहीं हैं। नंदिनी और राजोपाध्ये का संबंध इस विशुद्धके दायरे में आएगा या नहीं? अगर राजोपाध्ये भास्कर के प्रति अपनी कुत्सित भावना दबाए रखता तो विशुद्ध मैत्री की आड़ में दोनों का यौन संबंध आगे भी चलता रह सकता था। इसलिए आवश्यकता इस प्रश्न का सामना करने की थी कि विवाहेतर संबंधों का निर्वाह किस रूप में हो। लेखक इससे कतरा गया है।
बहरहाल, नंदिनी के रूप में लेखक ने एक स्वतंत्र विचारशील स्त्री की सृष्टि की है। गृहिणी का जीवन जीते हुए भी यह नारी घर की बंदिनी नहीं है। उसका व्यक्तित्व अपने लिए जगह मांगता है और वह उसे संभव भी कर लेती है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर वह अपने अंतर में परंपरित संस्कारों की जकड़ से मुक्त क्यों नहीं है? यौन-शुचिता की मांग भास्कर की है, लेकिन यौन-अशुचिताजनित अपराधबोध से अपने को वह भी मुक्त कहां कर पाई है? वह एकांत पाकर पति के सामने अपनी अशुचिता का प्रायश्चित कर अपने अपकर्म का मार्जन करना चाहती है।
एक बात और अखरती है। स्त्री-पुरुष में बराबरी का दर्जा मानने वाली नंदिनी जब अशुचिता के मुद्दे पर भास्कर की ओर से राहत पाती है तो उसे समानता के दर्जे से ऊपर उठा कर देवताके आसन पर प्रतिष्ठित कर देती है और उससे जन्म-जन्मांतर का साथ जोड़ने लगती है!
मूल प्रश्न का उत्तर यह कृति चाहे न भी देती हो, उस दिशा में सोचने को उकसाती है और यही इसकी बड़ी सार्थकता है। एक जगह लेखक ने भास्कर के स्वागत में अच्छा रूपक रचा है, ‘धूप में छांव ढूंढ़ने का हुनर जानते हो न? फिर कोई बात नहीं।यह सूत्र आज के जीवन की कई समस्याओं का समाधान हो सकता है; शायद कृति में उठाई गई मूल समस्या का भी। निस्संदेह, यह एक विचारोत्तेजक कृति है।
[ समंदर: मिलिंद बोकील, अनु.- पद्मजा घोरपड़े; अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन एक्सटेंशन-2, गाजियाबाद; 100 रुपए। ]

पुस्तक समीक्षक मोहनकृष्ण बोहरा
साभार जनसत्ता