गुजराती साहित्य में मंटो जैसा
कहानीकार क्यों नहीं...? / राजु पटेल
इस लेख का उनवान थोड़ा अजीब लगा
होगा... हाँ है ही अजीब – आप पूछोगे की बंगाली
भाषा में विजय तेंदुलकर जैसा नाट्य कार कहाँ है ...? उर्दू
भाषा में ख़ुशवंत सिंह या मराठी भाषा में
महाश्वेता देवी जैसे लेखक क्यों नहीं..!? – यह संकल्पना ही
बालिश लग सकती है.
लेकिन बात एकदम वैसी भी नहीं . मंटो को यहाँ बतौर एक इडियम देखें
तो मुद्दा यह है की मंटो ने जिस किस्म का लेखन किया क्या वैसा गुजराती भाषा में
लिखा गया है ?
- कैसा लेखन ?
‘ खोल दो ’, ‘ठंडा गोश्त ‘, ‘ बू ‘,
‘ खुशिया ‘ जैसी कहानियाँ अगर तुरंत याद आ रही
है तो यह भी सच है की यौन आवेग के विषय या
वैश्याकेंद्री कथाएँ लिखने वाला कथाकार -
यह मंटो की नाबालिग पहचान है. मेरा तो यहाँ तक मानना है की मंटो ने वैश्या से
संबंधित एक भी कहानी नहीं लिखी...पर यह शायद अलग बहस का मजमु है.
मंटो ने अगर ‘ खुशिया ‘ और ‘ काली सलवार ‘ लिखी है तो ‘ दो कौमे ‘ और ‘ मोज़िल ’ भी लिखी है ‘ टोबाटेक
सिंह ‘ ‘ नंगी आवाज़े ’, ‘ यज़ीद ‘
और ‘ मंत्र ‘ भी लिखी
है. अमरीका को चाचा सेम के संबोधन से खत भी लिखे है और बे हिसाब विनोदी रेडियो
नाटिकाएं भी लिखी है.
मख्तसर तौर पर कहना हो तो पाठक पढ़ कर
तिल मिला जाए ऐसा करीब करीब हर इंसानी रिश्ते पर मंटो ने लिखा है. मंटो ने खुद
डिस्टर्ब हो कर लिखा है और ऐसा लिखा है की पढ़ कर पाठक डिस्टर्ब हो जाए... तो
प्रश्न यह है की गुजराती साहित्य में ऐसी कहानियां कितनी जो वास्तव के साथ आँखें
मिला कर ऐसा कुछ पेश करती हो जिस से पढने वाला डिस्टर्ब हो जाए..?
यह सवाल मैं साहित्यकार या आलोचक के
तौर पर नहीं उठा रहा – एक साहित्य प्रेमी,
एक पाठक होने के नाते पूछ रहा हूँ. सवाल बहुत बड़ा है और मेरा कद कम
पड़ रहा है. फिर भी यह चेष्टा कर रहा हूँ क्योंकि सच में तो यह सवाल बहुत पहले उठना
चाहिए था और ज्यादा काबिल साहित्य मर्मज्ञ ने उठाना चाहिए था – जो की हुआ नहीं. इस मंच से यह सवाल उठा कर मैं उम्मीद रखता हूँ की गुजराती
साहित्य के विद्वान इस मुद्दे पर ध्यान दें.
मैं जवाब नहीं मांग रहा. शायद इस सवाल
का जवाब आसान नहीं. जवाब मिलेगा. आज नहीं तो कल –
पहले सवाल को तो ठीक से समझ लें....
इस मुद्दे पर गुजराती भाषा के विविध
साहित्यप्रेमी और लेखक के साथ मैंने सोशियल नेटवर्क से ले कर इ-मेइल और फोन के
जरिये बातें की. और मुझे विविध मंतव्य मिले. तीन- चार लोगो ने सवाल खत्म हो उस से
पहले चंद्रकांत बक्षी का नाम लिया. उन से मैंने पूछा : ओके – ‘ कुत्ती ’ के अलावा
क्या ? – जवाब नहीं मिलता. गुजराती भाषा में बनाम बाग़ी
लेखक बक्षी साहब मशहूर रहे है पर उन की
बग़ावत किस के सामने थी यह बतौर पाठक मुझे कभी समझ में नहीं आया. कुछ आलोचकों को और
आलोचना की प्रक्रिया को नीचा दिखाना या कुछ वरिष्ठ एवं हम कलम लेखकों को टुच्चा
कहना क्या बाग़ी कहलाने के लिए पर्याप्त है ? उनकी ‘ महाजाती गुजराती ‘ जैसी अख़बारी श्रेणी से लगता है
की गुजराती समाज के खिलाफ उन को कोई ख़ास शिकायत नहीं थी. उन की तिरछी नज़र से अख़बारी
स्थभं चमचमाते रहे पर साहित्य को बहुत फायदा नहीं हुआ.
बलके बोल्ड विषय की कथाओं की बात करें
तो बक्षी से पहले डॉ. जयंत खत्री की ‘ खिचड़ी ’ जिस में बाप की बेटी के पास वेश्या व्यवसाय
करवाने की अपेक्षा की बात है, या पन्नालाल पटेल की ‘ कंकु ’
कहानी जिस में नायिका के वैधव्य और बेबसी का लाभ वासना ग्रस्त बनिया
उठाना चाहता है और नायिका उस के बस में होती है वो अनिच्छा से नहीं...!! या सास-
दामाद के रिश्ते के बदलते समीकरण की बात करती हुई उमाशंकर जोशी की ‘ मारी चंपा नो वर ’, या दत्तक बेटी के साथ के संबंध
में न जोते गये प्रदेश की बात करती हुई कनैयालाल मुंशी की ‘
काका नी शशी ’ – इन सब कहानीओं को याद करना होगा.
यहाँ डॉ. जयंत खत्री की ‘ किरपाण ’ कहानी का ख़ास
जिक्र करना लाज़िमी होगा जिस में हाथ में किरपाण थामे खड़ी निर्दोष पन्ना कौमी दंगे
का एक असहय चित्र रचती है. खत्री साहब की अन्य कहानियां ‘ बंध
बारणानी पाछळ ’ और ‘ अंधारा – अजवाळां ’
इन दोनों कहानिओ में मंटो की ‘ हतक ’ और ‘ मंगु कोचवान ’ के भूगोल
और विषमता की गूँज है.
और डॉ. जयंत खत्री के गुरु समान
बकुलेश ने गुजराती कहानी में वास्तवदर्शी निदर्शन की नींव डाल ने का काम किया.
किंतु बकुलेश ने दर्शाई हुई दिशा में
आगे काम न के बराबर हुआ. बकुलेश का कच्ची उम्र में निधन हुआ और डॉ. जयंत खत्री
अकेले पड़ गये. रा.वि.पाठक और महेंद्र मेघाणी जैसे सूझ-बुझ वाले साहित्य मर्मीओ ने
डॉ. जयंत खत्री की कहानियां ‘ अच्छी
है ‘ यह स्वीकार ने के बाद भी ‘
एबनोर्मल ’ है यह जोड़ कर अप्रकाशित लौटा दी थी.
इन के अलावा और भी बिखरी हुई कहानियां
होगी जो यौन आवेग और इंसानी ज़ज्बो की परछाइयाँ झलकाती होगी-
पर उस के बाद--- ?
हमारी कहानीओं में आख़िरी छोर का आदमी
कहाँ दिखाई देता है ? रोज कमा कर रोज खाने
वाला, नौकरी में एक दिन गुटली हो गई तो चिंता ग्रस्त होता
इंसान कहाँ है ? लिपस्टिक में लिपटी मुस्कान बिखेरते खिड़की
पर खड़ी वेश्या के घर जमे हुए मकड़ी के जाले का रेखा चित्र देता कहानीकार कहाँ है ? कौमी दंगे से विक्षिप्त स्त्री, पुरुष, बाप, भाई, बहन, बेटी, माँ क्यों अद्रश्य है गुजराती साहित्य में ...?
१९८८ के दौरान जब हमारा एक कदम कॉलेज
के गेट के अंदर की ओर था और दूसरा कदम साहित्य प्रदेश में चलने के मनसूबे रच रहा
था तब मित्र संजय छेल ने टिप्पणी की थी की : गुजराती कहानी याने “ सुकेतु ने स्कूटर को किक मारी और संध्या ने
सिसकियाँ ली... “
--- आज २५ वर्षो के बाद क्या फर्क पड़ा है ? अब शायद
सुकेतु कार का गियर बदलता है पर संध्या तो सिसकियों पर ही अटकी पड़ी है ...!! कविता
की बातें करें तो गोकुल गाँव से कविता-कन्या को अभी विदाई नहीं दी गई...
हमारे साहित्य और नाटकों पर से अगर
हमारे समाज के बारे में अंदाजा निकाला जाएँ तो हम बहुत सुखी प्रजा है ऐसा चित्र
खड़ा होगा. साहित्य में प्रतिबिम्बित हमारी समस्याएं अधिकतम प्रणय त्रिकोण, पारिवारिक रिश्तों में ज़ज्बो का तनाव, बुझुर्गो की बुझुर्वा नीति से आकार लेता दुःख और “ माँ-बाप
को न बिसराना कभी “ भावनाओं की कथा आवृत्तियां.
भूख का दुःख, पहले मासिक धर्म के साथ आता खून के धब्बे जैसा
अजनबी दुःख, फूटती हुई मुछ के धागे और घेराव फैलाते मुहासे
के साथ पनपता दुःख, झोपड़पट्टी विस्थापित होने से स्थापित
होता दुःख, ज़मीन छीन जाने पर आदिवासी की आँखों में बसता दुःख....
- कहाँ है यह सारे दुःख..?
नो दुःख प्लीज़, वी आर गुजराती --- ऐसा है...?
धूमकेतु और जयंति दलाल ने मध्यमवर्ग
के आदमी की व्यथा पेश करती जो राह रची थी उस पर क्यों कर फिर घास उग आया ...!-
क्यों वो राह मार्ग में तब्दील न हुई आज तक ..?
किसान को केवल पन्नालाल पटेल ने दत्तक
लिया था ? किसी और को उस के
दुःख के साथ कोई सरोकार नहीं ?
सोशियल नेटवर्क पर एक बंदे ने सामने
सवाल किया की : वैसे तो अंबाणी और अदाणी और कौन सी भाषा के पास है !!?
- यह भी एक जवाब है...!! शायद मंटो
हमारी आवश्यकता ही नहीं- हमारे आइकोन अंबाणी- अदाणी है..? क्या अंबाणी मंटो का विकल्प हो सकता है ..?
नवनीत मेगेजिन वाले दीपक दोषी ने जवाब
दिया की गुजराती भारत में हो या अमरीका में – वो जो चाहते है वो उन्हें मिल जाता है... कम शब्दों में बड़ी बात कही गई है
यह – हमे पेरिस में पातरा और रोम में रस पूरी उपलब्ध है.
मुंबई में होटलों की मोनोपोली भले शेट्टी लोगों की हो पर गुजरातियों को खुश रखते
मेनू बगैर मुंबई में होटल चलाना मुश्किल है ... तो चाहे वो पा लेते गुजरातियो ने
मंटो को कभी ‘चाहा’ ही नहीं...?
मंटो के जिस सेमिनार हेतु यह पेपर
मैंने तैयार किया था उस सेमिनार की जानकारी मैंने सोशियल नेटवर्क पर शेर की थी. इस
जानकारी को लाइक करनेवाले दोस्तों/ परिचितों
को मैंने बिनती की थी की : आप लाइक करो यह पर्याप्त नहीं इसे शेर [ बांटिये
–फैलाएं ] भी कीजिये. ताकि अन्य लोग भी यह
सेमिनार की जानकारी पा सके-
जिन मित्रों ने यह जानकारी शेर की उन
में से एक भी – आई रिपीट – नोट अ सिंगल वन वोझ गुजराती...!!
- यह ठंडा प्रतिसाद भी जवाब का इशारा
देता है ...?
दूसरी भाषाओं की बात करें तो हिन्दी
में पहले भुवनेश्वर, फणीश्वर नाथ रेणु,
प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, कमलेश्वर और फिलहाल स्वयं प्रकाश, उदय प्रकाश, मराठी में जयवंत दळवी, मधु मंगेश कर्णिक, भाऊ पाध्ये, बंगाली में पहले शरद बाबु, मनोज बसु, सुनील गंगोपाध्याय, ताराशंकर बंदोपाध्याय, विभूति भूषण बंदोपाध्याय, फिलहाल महाश्वेता देवी, उत्पलेन्दु चट्टोपाध्याय के नाम सहज स्मरण हो आते है. गुजराती में ?
जयंत खत्री , बकुलेश ... और बाद में ..?
फिलहाल ..? शायद मोना पातरावाला ..?
इस मुद्दे का अन्य पहलू है – प्रकाशन.
कहानियां छापता कौन है ?
कहानी छापने वाली पत्रिकाओं में आखिर
में ‘ चांदनी ’ मेगेजिन था और अब मधु राय ने ‘ममता’ शुरू किया है. हाँ नवनीत में कहानियाँ छपती है – पर
नामवर कहानी कारों की.
दिक्कत यह है की कहानी छापेगा कौन ? अखबारों को धारावाहिक उपन्यास छापने में रूचि
है – छोटी कहानिओं के लिए कोई मंच ही नहीं...
‘ ममता ’ में कहानी छपती है पर बाग़ी कहानियों की संख्या न के बराबर है.
मंटो ने कहा था : ” ज़माने के जिस दौर
से इस वक्त हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे
नावाकिफ हैं तो मेरे अफ़साने पढिये.
और अगर आप इन अफ्सानों को बर्दाश्त
नहीं कर सकते तो इसका मतलब ये है कि
ये ज़माना ना काबिल-ए -बर्दाश्त है.
“
- ऐसा बोल सके –
वैसा, हमारे साप्रंत समाज का प्रतिनिधित्व करता
हुआ कहानीकार कहाँ है ?
पोस्ट कोलनिलिज़म के
पेलेस्टिनियन-अमरीकी साहित्यकार एडवर्ड सईद ने कहा था : साहित्य यह समाज ने सिस्टम
पर किया गया मुकदमा है.
गुजराती समाज और गुजराती साहित्य को
यह विधान कितना लागू होता है ? सिस्टम
तो गुजरातीओं के लिए कोई अलग नहीं है !!!
पर सिस्टम पर कोई लिखता नहीं. क्यों ?
ऊपर जो दुःख की फ़ेहरिस्त दी गई – क्या वो दुःख गुजराती माहौल में नहीं होते ?
वो हर भाषा- समाज में होते है – पर गुजराती
उन्हें देखता नहीं – देखना चाहता नहीं. देखेंगे तो महसूस
करेंगे और महसूस करेंगें तो हमारी लेखिनी में आयेगा.
गुजराती प्रजा पैसा प्रेमी है ...?
अरे मंटो से ज्यादा पैसे की जरुरत किस
ने झेली होगी ? आख़िरी दम तक मंटो
पैसों के लिए ही लिखता था. फिर भी वो लेखक का मिज़ाज रखता था, तभी तो पाकिस्तान में रहते हुए भी जब किसी होटल के मालिक ने बजाय ग्राहकों की और टेबल फेन रखने के जीना की तस्वीर की ओर रखना
लाज़िमी समझा तो इस बात को वो बेधड़क लिख पाया...!!
मुद्दा यह नहीं की क्यों लिखा जा रहा
है – मुद्दा यह है की क्या
लिखा जा रहा है -
क्या यह अपेक्षा कुछ ज्यादा ही है ?
यह समझना होगा की इस मजमु में उठाया गया सवाल साहित्यिक
कम और सामाजिक अधिक है -
तो अब हमारे सामने तीन महान प्रश्न है
:
१] लेखक है ?
२] प्रकाशक है ?
३] पाठक है ?
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[ लेखक की टिप्पणी : २३ फरवरी १३ को
मुंबई में मंटो जन्म शताब्दी के मौके पर आयोजित बहुभाषी सेमिनार में पढ़े गये पेपर
में इस लेख का बड़ा हिस्सा शामिल था. इस विषय पर मुझे विशेष माहिती अमदावाद स्थित
मित्र मनिषी जानी ने दी है. विश्वांजलि के इस अंक के लिए इस मजमु का पुन:लेखन किया
गया है. यह बिलकुल मुमकिन है की इस विषय
पर मेरा अध्ययन कम पड़ा हो. मंटो ने मुसलसल २०० से अधिक दहेकते अंगारों जैसी
कहानियाँ लिखी है उस परिप्रेक्ष में गुजराती भाषा की किसी इक्का- दुक्का कहानी की
यहाँ उपेक्षा की गई है ऐसा मानना अनुचित होगा.- २६ नवेम्बर १४ ]
( अमदावाद से सुशील ओझा संपादित
पत्रिका ‘ विश्व रंजनी’ के उद्घाटक अंक [जनवरी १५] से साभार.)
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